जब आवे संतोष धन , सब धन धूरि समान।
जब आवे संतोष धन , सब धन धूरि समान।
मानव एक विचित्र प्राणी है। वह अपनी वर्तमान स्थिति से कभी संतुष्ट नहीं रहता। वह जो कुछ है उससे आगे बढ़ कर बहुत कुछ बनने के लिए लालायित रहता है। वह रात और दिन इसी चिंता में डूबा रहता है कि मैं किस प्रकार जीवन की दौड़ में सबसे आगे निकल कर सब का नेतृत्व कर सकता हूं। बालक हो या वृद्ध, शिक्षित हो या अशिक्षित, ग्रामीण हो या शहरी, निर्धन हो या धनी, स्त्री हो या पुरुष, गृहस्थी हो या बैरागी, सबके मन में एक ही धुन सवार रहती है कि मैं एक बड़ा व्यक्ति बन जाऊं और विश्वभर की संपूर्ण शक्ति मेरे हाथों में आकर सिमट जाए। मानव की प्रवृति को ही तृष्णा या असंतोष का नाम दिया जा सकता है।
संतोष क्या है इस प्रश्न उत्तर में अधिक विस्तार से कुछ ना कहकर केवल मात्र यह कह देना ही पर्याप्त होगा संतोष मानव कि उस अवस्था विशेष को कहते हैं जब मनुष्य के मन में अपनी वर्तमान स्थिति के प्रति कोई पछतावा या संताप ना हो। दूसरे शब्दों में, मनुष्य की सुख की उस अवस्था को संतोष कहते हैं जब किसी प्रकार का कोई दुख मनुष्य को विचलित करने में असमर्थ हो। इस प्रकार संतोष मनुष्य का एक ऐसा उत्कृष्ट गुण है जिसके सामने उसके सभी गुण फीके पड़ जाते हैं। यदि मनुष्य में केवल मात्र इसी एक गुण का निवास रहे तो समझ लीजिए कि वह मनुष्य विश्व में केवल सुखी ही नहीं अपितु एक सच्चा मानव कह लाने का भी अधिकारी है।
संतोष मनुष्य जीवन का सर्वोत्तम भूषण है। संतोष रूपी देवता के आते ही चिंता, तृष्णा, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या आदि राक्षसों की सेना मैदान छोड़कर भाग खड़ी होती है। इसलिए कहा गया है-
चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बे परवाह।
जिनको कछु न चाहिए वे ही, शहंशाह।।
संतोषी मनुष्य जब आत्मा से शांत और वाणी से नम्र होता हैका हृदय से उदार और शरीर से हृष्ट पुष्ट भी रहता है। बड़ी से बड़ी आपत्ति, महान संघर्ष और भयंकर अभाव भी संतोषी व्यक्ति का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उसे तो रुखा सूखा खा कर ही असीम सुख का अनुभव होता हैं। कबीर जी ने ठीक कहा है-
रुखा सुखा खायैय के ,ठण्डा पानी पीव।
देखी बिरानी चुपड़ी, मत ललचावे जीव।।
इसके विपरीत जो व्यक्ति असंतोषी होते हैं वह जीवन में कभी सुख का अनुभव नहीं कर सकते। वह आवश्यकता को पूरा करने के लिए हर समय माया के जाल में फंसे रहते हैं। वह अपनी इच्छा पूर्ति के लिए उचित अनुचित, मान अपमान तथा सुमार्ग कुमार्ग का भी ध्यान नहीं रखते। यही कारण है कि वे लोग जहां सब की दृष्टि में गिर जाते हैं वहां उनकी आत्मा भी उन्हें धिक्कारती रहती है। भले ही वो अपने मुख से इस तथ्य को स्वीकार न करे। ऐसे व्यक्ति को कभी क्रोध आ कर घेर लेता है तो कभी चिंता नागिन की भांति अंदर ही अंदर से काटती रहती है। उसे ना खाना अच्छा लगता है और ना ही वह आराम की नींद सो सकता है। उसकी बुद्धि का अनुपात समाप्त हो जाता है और उसके विचार दूषित और संकीर्ण बन जाते हैं। यहां तक कि असंतोषी व्यक्ति चोरी, हिंसा, लूट, अन्याय, बेईमानी, धोखा आदि सामाजिक बुराइयां करने पर उतारू हो जाता है। इसीलिए तो कहा गया है -
“ लोभ: पापस्य कारणम्।”
आज का मानव पूर्ण रूप से असंतोष का शिकार हो चुका है। एक व्यक्ति के पास सो रुपए हो जाते हैं तो वह लखपति बनना चाहता है। लखपति करोड़पति बनने का सपना लेने लगता है और करोड़पति अरबपति बनने के लिए लालायित हो उठता हैं। आज एक देश दूसरे देश पर आक्रमण करता है तो उसके मूल में भी असंतोष की भावना ही कार्य करती है। रिश्वत भ्रष्टाचार का फैलाव, हिंसा की प्रवृति, मानवता का ह्रास इन सभी अमानवीय व्यापार में वृद्धि का मूल कारण है असंतोष ही हैं। आज का मानव स्वयं बुढा होता है परंतु उसकी तृष्णा कभी नष्ट नहीं होती।
असंतोष एक मानवीय दुर्गुण है। इसका जन्मदाता स्वयं मानव है। यदि मानव चाहे तो स्वयं इस दुर्गुण को समाप्त कर सकता है। यह ठीक है कि असंतोष एक भयंकर व्यसन है जिसमें फंसकर मनुष्य के लिए निकलना अति दुष्कर है, परंतु संसार में कोई भी कार्य असंभव नहीं है। संतोष प्राप्ति के लिए सबसे पहले अपने अंदर संयम की शक्ति उत्पन्न करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही सभ्य सज्जन पुरुषों की संगति भी नितांत अनिवार्य है। धार्मिक कार्यों में रुचि आदि के कारण भी संतोष को बढ़ावा मिलता है। सादा जीवन, पवित्र भोजन व वंदना, धार्मिक यात्रा, दान की प्रवृति आदि साधन भी मनुष्य को संतोषी बनने में सहायता देते हैं। कबीर जी ने कहा हैं -
साईं इतना दीजिए जा मे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाए।।
अंत में हमें यही कह सकते हैं कि संतोष मनुष्य का ऐसा गुण है जिसके सामने सभी गुण नि:स्सार होकर रह जाते हैं। भारतीय संस्कृति के क्षेत्र में तो संतोष का और भी अधिक महत्व और गौरव बताया गया। गोस्वामी तुलसीदास जी ने संतोष का महत्व बताते हुए ठीक ही कहा है-
गोधन गजधन बाजि धन और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान।।
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